शशि काण्डपाल द्वारा प्रकाशित
20 जुलाई, 2020
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जैसा कि मैंने बताया कि हम रात का उपयोग यात्रा के लिए कर रहे थे सो 16 दिसंबर 2019 की रात बादामी से वॉल्वो पकड़ कर सुबह 4 बजे मुरुडेश्वर पहुंचे।
कुछ घंटों के लिए होटल लिया हुआ था सो दैनिक क्रिया के बाद मंदिर, गोपुरम, सागर देखने निकल गए।
दस बजे तक हम फ्री हो गए थे तो मुरुडेश्वर बस अड्डे पहुँच गए।
यहाँ उडुपी जाने के लिए हर तरह की बसें लगातार मिलती रहती हैं सो थोड़ी ही देर में हम उडुपी जाने वाले रास्ते पर थे।
उडुपी में ठहरने के लिए सबसे पहले हमें “कृष्ण मठ” जाकर उनके गेस्ट हाउस को देखना था क्योंकि सारे मंदिर कृष्ण मठ के आसपास हैं और गेस्ट हाउस के रिव्यूज भी अच्छे थे। गेस्ट हाउस बस अड्डे से मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी थी।
उडुपी छोटा सा शहर है सो 30 रुपये में एक ऑटो वाले ने पहुंचा दिया। इत्तेफाक कि हम पहुंचे और एक बंगाली फेमिली चेक आउट कर रही थी सो वो कमरा हमें मिला। गेस्ट हाउस हमेशा भरा रहता है अतः ऑनलाइन बुकिंग कराई जा सकती है।
थोड़ी देर इंतजार के बाद बेहतरीन सुविधाएं, शांति और सफाई वाला कमरा मिला। प्रसन्न मन से फिर से नहाया और चाय आ गई।
यहाँ किचन नहीं है लेकिन सामने ही छोटा सा होटल है सो सब चीजें मिल जाती हैं। पता चला कि मठ में सुबह का नाश्ता, दिन का खाना और रात का डिनर फ्री है।
मैनेजर के बार बार कहने पर भी हम मठ में खाना खाने नहीं गए क्योंकि हम उडुपी के आसपास घूमना चाहते थे। मैनेजर ने ही एक ऑटो वाले को बुला दिया और हम पवित्र शहर उडुपी घूमने निकल पड़े।
आइये उडुपी को जानें –
उडुपी मठों का शहर है। एक पवित्र शहर जहां प्रातः चार बजे से नगाड़ों की आवाज सुनी जा सकती है।
मठ अति प्राचीन हैं। कृष्ण मठ अन्य आठ मठों से घिरा है और अति पवित्र माना गया है। उडुपी के एक तरफ ठाठें मारता समुन्द्र है तो एक तरफ सहयाद्रि पर्वत शृंखला और इसके बीच में है उडुपी जो कि परशुराम क्षेत्र कहलाता है।
इसके पीछे की कहानी है कि परशुराम ने जब इक्कीस बार धरती को क्षत्रिय विहीन करने के बाद यज्ञ किया और पूरी धरती ब्राह्मणों को दान कर दी। उसके बाद परशुराम जी को लगा कि दान की गई जमीन पर रहना ठीक नहीं सो उन्होने समुन्द्र में बाण चलाकर गोकर्णा से कन्याकुमारी तक की नई भूमि बनाई जिसे भगवान वरुण ने परशुराम को सौंप दिया और परशुराम जी ने अपने शिष्य रामभोज को यहाँ का राजा बना दिया।
रामभोज ने जब अश्वमेध यज्ञ किया तो गलती से एक साँप मारा गया, वो असल में साँप के रूप में विघ्न था लेकिन रामभोज को बहुत पश्चाताप हुआ। पश्चाताप स्वरूप परशुराम ने सर्प विकार करवाया तथा यहाँ भगवान चन्द्रमौलि का मंदिर बना। उडुपी संस्कृत के दो शब्दों के मेल उडु ( तारे ), पा ( भगवान का ) यानि लॉर्ड ऑफ स्टार्स मतलब खुद चंद्रमा के नाम पर है ये शहर।
पाण्डेश्वरा,बराकुरु :
हम करीब दोपहर 2 बजे तक ऑटो पा सके क्योंकि सभी प्री बुक थे।
ऑटो वाला सबसे पहले पाण्डेश्वरा मंदिर बारकुरु ले गया जहां आजकल मेला लगा हुआ था। हमें भी कर्णाटकी संस्कृति देखनी थी। वो एक स्थानीय देवता का मंदिर है। मंदिर केले के पेड़ों और नारियलों से सजा था। लोकल वाद्ययंत्र बज रहे थे । पहली बार रागी के मुरमुरे खरीदे और बीज वाले छोटे मीठे केले खाये।
मंदिर के अंदर बेहद खूबसूरत बड़ी बड़ी सफ़ेद अनाज की सी बालियाँ चढ़ावे में आईं थी उनका ढेर देखकर वहाँ काम कर रहे लोगो से उसका नाम जानना चाहा तो भाषा का भूचाल आ गया। वो सिर्फ कन्नड जानते थे और मुझे उस चीज का नाम जानना था आखिर कई लड़के कोशिश करके, चित्र दिखाकर और पूरी सीरीज मिला कर मुझे ये बतलाने में सफल रहे कि वो नारियल के फूल हैं, जानकार जिज्ञासा शांत हुई।
अनागुड्डे गणपति :
दूसरा मंदिर था अनागुड्डे गणपती मंदिर। । इसका प्रवेश द्वार बहुत भव्य है और प्रांगण काफी बड़ा तथा हरियाली से भरा है। ये वहाँ का प्रसिद्ध मंदिर है।
पंचदुर्गा श्री इंद्राणी अति शांति दायी मंदिर परिसर है। शंकर नारायण टेंपल भी अति भव्य और प्राचीन मंदिर है लेकिन बहुत से मंदिरों में फ़ोटो लेना मना है।
मालपी :
शाम को मालपी बीच में घूमने से बेहतर कुछ नहीं। खूबसूरत, साफ सुथरा, नारियल, ताड़ से आच्छादित ये समुन्द्र तट परिवारों के लिए एकदम सेफ है।
समुन्द्र भी शांत है। वॉटर गेम्स उपलब्ध हैं और सूर्यास्त देखना एक अनुपम अनुभव होता है। समुन्द्र में डूबता सूरज चारों ओर अपनी सिंदूरी आभा से सबको मोहित कर जाता है।
मालपी बीच से ही स्टीमर द्वारा सेंट मेरी बीच देखने जाया जा सकता है लेकिन 17/12/19 को किन्हीं कारणों से स्टीमर सेवा बंद थी सो देखा न जा सका। हमने मालपी बीच पर करीब 2 घंटे बिताए।
हमने दिन में आसपास घूमना था सो लंच आश्रम में नहीं किया लेकिन डिनर करने मंदिर के किचन में गए। वहाँ हजारों की संख्या में लोग पंक्तिबद्ध होकर बैठे थे।
आश्रम एक दिन में हजारों लोगो को मुफ्त भोजन कराता है। खाना बाँटने,परोसने,सफाई हर चीज बेहद अनुशासित थी। यहाँ अभी भी लकड़ियों में खाना बनता है। लेकिन हमारे लिए वो निर्णय आरामदायक नहीं रहा क्योंकि वहाँ खाना आपकी पसंद का नहीं बल्कि रसोई के मेनू के अनुसार मिलता है लेकिन हजारों लोगों के एक साथ खाना खाने पर भी भोजन का एक भी दाना जूठन में नहीं था।
यहाँ गीता भवन भी है और राजा रंगमंडपम भी जिसमें रोज पौराणिक चरित्र के नाटक देखे जा सकते हैं।
उडुपी दूसरा दिन – 18/12/2019
सुबह की शुरुआत अनंतेश्वरा मंदिर, कृष्ण मठ और श्री चंद्र मौलिश्वर के दर्शनों के साथ करनी थी। तीनों मंदिर तथा आठों मठ, कृष्ण मठ के बगल, आसपास में हैं
अनंतेश्वरा :
यहाँ का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को एक ब्राह्मण दंपत्ति ने बनवाया था। कहते हैं उनकी कोई औलाद नहीं थी और वे रात दिन प्रभु से संतान की प्रार्थना किया करते थे। एक दिन खुद भगवान शिव उनके स्वप्न में आए और पूजन की विधि बतलाई।
उन दंपत्ति ने रामभोज के अश्वमेध वाली यज्ञ की जगह पर बने पवित्र सरोवर में स्नान किया, चाँदी के बने साँपो पर दूध अर्पित किया और वो लिंगम में बदल गए इसीलिए वहाँ चंद्रमौलीश्वर का मंदिर बना और पहले मौलीश्वर के ही दर्शन करने की परंपरा है।
उसके पीछे बेहद अद्भुत वास्तु का महाशेषनाग का मंदिर बनाया गया जिसे भक्त अनंतेश्वरा / अनंत पदमनाभा भी कहते हैं।
कृष्ण मठ :
उडुपी का आश्चर्य/आकर्षण कृष्ण मठ है। कहा जाता है कि स्थापित मूर्ति जिसे श्री माधवाचार्या जी ने स्थापित किया वो स्वयं श्री कृष्ण ने विश्वकर्मा से बनवाई थी।
हुआ यूं कि देवकी अपने बालकृष्ण की लीलाएं देखना चाहती थीं तथा रुक्मणी उनकी पत्नी भी उनकी बाल लीलाओं की कायल थीं सो उनके अनेक आग्रह पर कि उन्हें पूजन हेतु एक बालकृष्ण की मूर्ति ही चाहिए तो कृष्ण के आग्रह पर विश्वकर्मा द्वारा शालिग्राम पत्थर से ये मूर्ति बनाई गई।
कृष्ण के दाएँ हाथ में चमर और बाएँ में रस्सी है। रुक्मणी जी इस मूर्ति की निहाल होकर पूजन करती थीं लेकिन जब कृष्ण/रुक्मणी इस दुनिया से चले गए तो ये मूर्ति अर्जुन के पास रही। कालांतर में अर्जुन भी इसे रुक्मणी के बगीचे में रख तपस्या करने चले गए।
अनजाने में इस मूर्ति का गोपीचंदनम नाम के व्यापारी ने अपनी नाव का समुन्द्र में जाने पर उसे स्थिर रखने (बैलेंस) के लिए उपयोग करना शुरू किया।
एक खोल में बंद मूर्ति व्यापारी की नाव में पड़ी रहती। एक बार जब व्यापारी समुन्द्र के किनारे आने ही वाला था कि भयानक समुंद्री तूफान में घिर गया। किसी तरह बचने का उपाय न सूझा तो किनारे खड़े माधवाचार्य से चिल्ला कर मदद की गुहार लगाने लगा। आचार्य ने अपनी दिव्य शक्ति से तूफान थाम लिया और नाव किनारे लग सकी। व्यापारी खुश होकर उनसे कुछ भी मांगने की बात कहने लगा तो आचार्य ने ये बेलेंसिंग पत्थर का ढ़ेला मांग लिया।
आचार्य द्वारा उस बड़े से ढेले में लगी मिट्टी को जैसे ही साफ किया गया तो एक दिव्य, सुंदर मूर्ति के दर्शन हुए। आचार्य मूर्ति को उडुपी लाये और माधव सरोवर के पवित्र जल में नहला कर मठ में स्थापित करके पूजा करने लगे।
उस दिन से आज तक वो पूजा भंग नहीं हुई है। इस मूर्ति को छूने की इजाजत सिर्फ आठ मठाधीसों को ही है इसे और कोई नहीं छू सकता।
यहाँ एक पवित्र जल सरोवर है जिसका पानी रोज भगवान के अभिषेक के लिए लिया जाता है। मंदिर के दक्षिण द्वार से अंदर जाने पर दाहिनी तरफ माधव पुष्करिणी सरोवर है। जिसमें एक मंडप भी बना है। इस सरोवर की बहुत महत्ता है। श्रद्धालु इसे पूज्यनीय मानते हैं। कहते हैं और प्रमाण हैं कि हर बारहवें साल खुद भागीरथी सरोवर के दक्षिण पश्चिमी कोने से यहाँ आकार इसे पवित्र करती हैं तब ये भागीरथी के पानी से छलछला उठता है।
भगवान कृष्ण की मठ में अपनी रसोई है जिसमें रसोइये रोज सुबह तरह तरह के नैवेद्य तैयार करते हैं और उसी का भोग लगता है।
कृष्ण मठ में प्रवेश हेतु कोई सीधा दरवाजा नहीं है जो प्रभु के दर्शन करवा दे बल्कि एक खिड़की है जिससे श्रद्धालु मंदिर के बाहर से ही सीधे भगवान के दर्शन कर सकते हैं। इसे नवग्रह खिड़की कहते है लेकिन अंदर प्रांगण में प्रसाद चढ़ाने खड़े भक्तजनों की वजह से स्पष्ट दर्शन नहीं हो पाते, इसके लिए अंदर जाना ही पड़ता है।वहाँ भी दर्शन खिड़की से ही होते हैं। पुजारी जी के ये बताने पर कि कृष्ण भगवान के पूजा स्थल पर जल रहे कुछ दीपक माधवाचार्य के जलाए हो सकते हैं सुनकर रोमांच हो आया। इतनी प्राचीन परंपरा को जीवित रखा गया ! दर्शन करने की अनुभूति अवर्णीय है वो बस साक्षात जाकर ही प्राप्त की जा सकती है।
हमारा कृष्ण मंदिर का दर्शन भी एक नया अनुभव लेकर आया। हम उडुपी पहुँच कर आसपास घूमने चले गए और रात में मठ में भोजन किया तत्पश्चात रंगपट्टनम में नाटक देखा। सोचा मंदिर सुबह देखेंगे। सुबह जब सात बजे मंदिर पहुंचे तो वहाँ एक किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी। हम निराश हो गए। कुछ बाहर से फोटो लीं और अनंतेश्वरा मंदिर जो कि सामने ही है वहाँ चले गए। आते समय मैं फूलों की स्टाल जो कि हर मंदिर के आगे एकदम सुबह ही लग जाती है, से वेणी खरीद कर निराश सी, मठ के द्वार पर खड़ी हसरत से कृष्ण मठ मंदिर देखने लगी कि शायद हम दर्शन नहीं कर सकेंगे। हमें कुछ ही देर में मंगलोर निकलना था और यहाँ रहे तो दोपहर तक नंबर आता। अचानक एक पुजारी जी प्रकट हुए और सलाह दी कि “यदि आप अन्न दानम कर दें तो आपको जल्दी दर्शन हो सकते हैं।”
हम दोनों चिल्लाये कितना दान देना होगा ?
कम से कम पाँच सौ!
थोड़ी देर में हम उनके साथ ऑफिस में थे। पता चला कि मठ न सिर्फ हजारों लोगों को रोज यहाँ खाना खिलाता है बल्कि सैकड़ों छात्रों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी भी उठाता है। हम उनके चलाये जा रहे अभियानों से परिचित ही थे और दान करना भी चाह रहे थे मानों प्रभु को हमारा अभीष्ट पता चल गया था! सो दान की पर्ची कटवा ली। वो ब्राह्मण प्रसाद की थैली हमारे हाथ में पकड़वा कर न जाने कौन सी वीथिकाओ से निकाल लाये कि हम मंदिर के प्रांगण के ठीक बीच में आ गए। उस समय मंदिर के पुजारी, आठों मठाधीसों की उषाकाल पूजा की मंदिर परिक्रमा चल रही थी सो थोड़ा रुकना पड़ा। अगले दो मिनटों में दौड़ते हुए हम खिड़की से प्रभु के अद्भुत दर्शन कर रहे थे। बिलकुल विश्वास नहीं आया कि दर्शन हो रहे हैं! अंदर प्रभु विराजमान थे, काला शालिग्राम सैकड़ों दीयों की जगमगाहट में बेहद चमकदार दिख रहा था, अति भव्य दृश्य था! मैं जड़ होकर देखे जा रही थी कि उन आचार्य ने नीचे उतरने का इशारा किया। यहाँ दो बार दर्शन कराये जाते हैं। एक बार दर्शन के बाद नवग्रह खिड़की से दो सीढ़ी नीचे उतार कर फिर से लाइन में लगा दिया ताकि हम फिर से अनुपम दर्शन कर सके । लगा भगवान कृष्ण ही बांह पकड़ बार बार दर्शन करवा रहे हैं। गेट तक आते आते वो पुजारी गायब था। धन्यवाद कहना रह गया।
उडुपी मठ में दिनभर में विसर्जन निर्माल्य, उषाकाल पूजा, गौ पूजा, पंचामृता पूजा, उदवर्तना पूजा होती है जिसमें थोड़ी देर के लिए दर्शन रोक दिये जाते हैं और सारी क्रिया के बाद शंख बजाकर इस बात का उद्घोष करते हैं कि सारी पूजा समाप्त हुई।
उडुपी साल भर अपने वार्षिक महोत्सव सप्तोत्सर की तैयारी करता है। मकरसंक्रांति से पाँच दिन पहले उत्सव शुरू हो जाते हैं। छठे दिन मकर संक्रांति वाले दिन उत्सव मूर्ति श्री कृष्ण और मुख्यप्राणा को पुष्करणी सरोवर में नाव की सवारी कराई जाती है जिसे देखना बहुत आनंददायी होता है। तत्पश्चात पुजारी जी भगवान की रथ यात्रा निकालते हैं जिसे लाखों बाहर से आए श्रद्धालु देखकर अपने को धन्य मानते हैं। जब कृष्ण जी रथ पर होते हैं तो उनके आसपास अनंतेश्वरा और श्री चंद्र मौलिश्वर कि भी डोलियाँ साथ चलती हैं। जब महोत्सव का आखिरी दिन होता है तब भगवान की मूर्तिया सोने कि पालकी में बाहर ब्रहम रथ पर लाई जाती हैं और मठ के पुजारी रथ के ऊपर जाकर फल, लड्डू यहाँ तक कि सिक्के भी नीचे खड़े श्रद्धालुओं पर बरसाते हैं और इसी समय एक गरुड़ रथ की परिक्रमा करने आता है, सब कुछ बेहद अद्भुत! हर व्यक्ति ने हमसे एक ही आग्रह किया कि मकरसंक्रांति पर जरूर आना!
उडुपी सच्ची श्रद्धा का, अनेक उत्सवों का, सनातन धर्म के अक्षुण्ण रहने का, विश्वासों का केंद्र है।
मठ समाज के लिए बहुत सारे हितकारी कारी करते हैं। ऐसे जागृत शक्तिमय स्थान पर जाना अपनी संस्कृति, धर्म और देश को जानने का सबसे अच्छा तरीका है।
जय श्री कृष्णा
खर्च :-
गेस्ट हाउस- रु 1500
ऑटो- 1600
बाकी सारे खर्च इच्छानुसार/ श्रद्धानुसार
© All Rights Reserved
2 Comments
Pratik Gandhi · August 10, 2020 at 6:49 pm
बंगाली परिवार के check out करने से आपको कमरा मिल गया…..मुरुदेश्वर आपने 5 घंटे में ही देख लिया….उडुपी में आते ही आपने पहले बहार का उडुपी देखा और किस्मत से St Mary आइलैंड नहीं देख पाए….आपको शायद याद हो तो जब आपको मेने GDS में जोड़ा था शशि जी तो सबसे पहली पोस्ट ही आपने पढ़ी थी वो St Mary आइलैंड की थी जो आपको बहुत अच्छी लगी थी जगह और में 2018 में तब पहली बार उडुपी बस जाकर ही आया था…आपकी फोटोग्राफी बहुत सुंदर है बहुत अच्छे फोटो खिंचे….मालपे beach की शाम देख ली….मठ की 1 km की लाइन में भी किस्मत से अच्छे दर्शन हो गए….मुझे उडुपी बहुत पसन्द है ऐसा लगता है जब भी जाऊं मठ के आस पास 2 दिन रुकू औए गलियां देखु उडुपी खाना खाऊं उन छोटी छोटी बातों को उडुपी में enjoy करू एक अलग ही दुनिया है अलग ही culture है ये…बहुत अच्छा आपने लिखा है फोटो अति उत्तम….
shashi · August 11, 2020 at 3:22 pm
Pratik Gandhi थैंक्स भाई, सच कहूं तो तब से ही उडुपी मन में था और आपकी याददाश्त ग़ज़ब की है।
मैं दशहरे में उडुपी जाना चाहूंगी और बिल्कुल वैसे ही वहाँ रुकना चाहूंगी जैसा आपने कहा। उस गरुड़ को देखना चाहूंगी जो ठीक दशहरे वाले दिन रथ के ऊपर आता है और रोज झरोखे से कृष्ण के दर्शनों की लाइन में लगूंगी 🙏